क्या बच्चों को उनकी गलतियों पर दण्डित करना उचित है? उचित समय पर दण्ड देना भी समाज एवं हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यदि गलती करने पर छात्रों अथवा बच्चों को दण्ड न दिया जाये तो उनका बिगड़ना स्वाभाविक है। नादान होने के कारण बच्चों को सही-गलत की समझ नहीं होती, इसलिए जब वे बड़ों की सलाह नहीं मानते तो उनके भले के लिए उन्हें दण्ड देना अावश्यक हो जाता है। *चाणक्य पण्डित कहते थे*; –
*लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् ।*
*प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ।।*
पहले पाँच वर्ष तक बच्चे को दुलारना चाहिए। उसके पश्चात् अगले दस वर्षों तक उसे दण्ड देना चाहिए। परन्तु जब वह सोलहवें वर्ष में प्रवेश कर जाये तो उसके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए। सोने के अाभूषण बनाने के लिए उसे पिघलाकर काटा-पीटा जाता है तथा पेड़ की लकड़ी से सुन्दर नक्काशीयुक्त कुर्सी बनाने के लिए उसे काटा-खुरचा जाता है। इसी प्रकार हमारे व्यक्तित्व को निखारने के लिए अावश्यक है कि उसमें बैठी अनावश्यक बुरी अादतों तथा स्वभाव को निकाला जाये। इसके लिए कई बार दण्ड ही एकमात्र साधन बच जाता है। कहा जाता है कि जब शास्त्र (अच्छी सलाह) काम करना बंद कर दे तो शस्त्र (दण्ड) से काम लेना पड़ता है।
शास्त्र के अनुसार दिये गये दण्ड स्वयं भगवान् का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसा कि भगवान् *श्रीकृष्ण स्वयं भगवद्गीता (१०.३८) में कहते हैं*,
अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में से मैं दण्ड हूँ। अनुशासन के लिए अनेक बार दण्ड देना ही पड़ता है अौर सही समय पर बच्चों को अनुशासित न करने का मुख्य कारण हमारा कमजोर हृदय है जो भावनाअों में बह जाता है अौर बुद्धि के अनुसार कार्य नहीं करता। बच्चा जब गलती करता है अौर गलती सुधारने में यदि हम उसकी मदद नहीं करेंगे तो वह बड़ा होकर हमें ही दोष देगा कि अापने मुझे सही समय पर सुधारा क्यों नहीं मैं तो नादान था पर अापको तो सही अौर गलत की समझ थी। अपनी भावनात्मक अासक्तियों के कारण ही कई बार हम सही निर्णय लेने में असफल हो जाते हैं अौर अपने तथाकथित प्रेम के कारण बच्चों की सभी प्रकार की इच्छाअों की पूर्ति कर उनका जीवन ही बर्बाद कर देते हैं। जैसा कि धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की सभी कुटिल चालों में उसका साथ देकर किया। राजा की गद्दी पर बैठे होने के कारण यदि धृतराष्ट्र चाहते तो दुर्योधन को उसकी कुटिल एवं भद्दी चालों को करने से रोक सकते थे किन्तु उन्होंने एेसा नहीं किया अौर उसका एकमात्र कारण था – पुत्र मोह… जिसका अन्तत: परिणाम यह हुअा कि वे अपने सारे पुत्रों को खो बैठे। दया न दिखाने पर हम कठोर हो जाते हैं अौर दण्ड न देने पर लोगों की गलतियों को बढ़ावा देते हैं। सही समय पर दया या दण्ड का चुनाव करना ही परिपक्वता है। अौर यह परिपक्वता अाध्यात्मिक चेतना में प्रगति करने से अाती है क्योंकि अध्यात्म के द्वारा हमारी भौतिक दृष्टि से काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि की परते उतरनी लगती हैं अौर हम सही दृष्टि से निर्णय ले सकते हैं। *हरे कृष्ण।*