25 Sep 2018 | 1 min Read
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पितृपक्ष की हिन्दू धर्म में बहुत मान्यता है। भाद्र कृष्ण प्रतिपदा तिथि से पितृपक्ष प्रारम्भ होता है जिसमे हम अपने पूर्वजो का श्राद्ध करते है। हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है। पुराणों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का मरणोपरांत विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे मुक्ति नहीं मिलती है। ऐसा भी माना जाता है की वह अतृप्त रूप में इस संसार में ही रह जाता है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार मनुष्य को देवताओं को प्रसन्न करने से पहले अपने पितरों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष की माने तो पितृ दोष सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक है। इसलिए पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के समय में “पितृ पक्ष” या श्राद्ध पक्ष होते हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार इस काल में यमराज पितरों को आज़ाद कर देते हैं जिससे वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।
ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वास्तु निर्धारित काल में, एक निर्धारित स्थान पर पितरों के नाम से व्यवस्थित विधि विधान द्वारा ब्राह्मणो को दी जाएं, तो वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम पितरों को भोजन प्रसाद पहुँचाया जाता है। पितरों को दिया जाने वाला भोजन पिंड रूप में अर्पित किया जाता है जिससे हमारे पूर्वजो को तृप्ति मिलती है। पिंड रूप में दिया गया भोजन श्राद्ध का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
जिस प्रकार बड़े बुज़ुर्गो के आशीर्वाद से मनुष्य बड़ी से बड़ी समस्याओं को पार कर जाता है ठीक उसी प्रकार पितरों का आशीर्वाद भी बहुत ज़रूरी है। मान्यता है कि यदि पितृ रुष्ट हो जाए तो मनुष्य को जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पूर्वज अगर अशांत है तो धन हानि, गृह क्लेश, मांगलिक कार्यों में अड़चन एवं आर्थिक समस्या और संतान पक्ष से समस्याओं का भी सामना करना पड़ सकता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यदि कोई संतानहीन है तो उसकी कुंडली में पितृ दोष अवश्य देखा जाता है और पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करने के लिए कहा जाता है।
पितृपक्ष श्राद्ध में तिल, जौ, एवं चावल का बहुत अधिक महत्त्व है। पुराणों में यह भी कहा गया है की श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को ही होता है। श्राद्ध में कुशा और तिल का सर्वाधिक महत्त्व है। श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर, और सरसों का भी उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र के साथ-साथ महिलाओं को भी होता है।
पुराणों के अनुसार कौवे पितरों का रूप होते है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पूर्वज कौवे के रूप में नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। यदि इस काल में उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो श्राद्ध दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना है। अगर किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा को हुई हो तो उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही किया जाता है ।
जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती उनके लिए भी पितृपक्ष में कुछ विशेष तिथियाँ निर्धारित की गई हैं। उन तिथियों पर वे लोग पितरों के निमित श्राद्ध कर सकते है। यदि आप किसी कारणवश एक विशेष तिथि पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गये हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो सर्वपितृमोक्ष अमावस्या पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है ।
पितृ लोक को मनुष्य आंखों से नहीं देख सकता। प्रायः मृत्यु के बाद एक वर्ष तक जीवात्मा को नया शरीर नहीं मिलता और इसलिए वह सूक्ष्म रूप में स्वजनों के घर के आसपास ही घूमती है । पितृपक्ष में श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से जीवात्मा को तृप्ति मिलती है और वह मोक्ष को प्राप्त होता है।
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