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मातृत्व केअधिकारों के लिए पुरज़ोर आवाज़ उठाने वाली महिलाएं

मातृत्व केअधिकारों के लिए पुरज़ोर आवाज़ उठाने वाली महिलाएं

10 May 2019 | 1 min Read

 “एक महिला के लिए अपने अधिकारों से भी बड़ी बात है मां बनना” – लिन यूटांग

 

औरत को ’मातृत्व’ नाम की एक अनोखी शक्ति का उपहार में मिली है। कहते हैं कि बच्चे के साथ-साथ मां का भी नया होता है। जिस समय बच्चा गर्भ में होता है उस समय से बच्चे की परवरिश में मां का सहजज्ञान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब बच्चे के साथ एक औरत का मां के रूप में जन्म होता है तो पूरे समाज से उसके मातृत्व के आगे की यात्रा के समर्थन में खड़े होने की उम्मीद की जाती है।

यह समर्थन केवल परिवार के सदस्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उस समाज से भी मिलना चाहिए जिसके पास मातृत्व की चुनौतीपूर्ण यात्रा के लिए सुंदर योगदान देने के अपने रास्ते हैं।यह समर्थन कानून, चिकित्सा-सहायता और सामाजिक नैतिकता के माध्यम से आता है। ‘मदर्स डे’ के अवसर पर हम उन माताओं का स्वागत करते हैं जिन्होंने अपने कानून निर्माताओं से ऐसे कानूनों को बनाने के लिए आवाज़ उठाई है जो एक माँ और उसके बच्चे के अधिकारों का समर्थन करते हैं। उन्होंने change.org पर याचिकाएं दायर की हैं और उन्हें दुनिया भर के लोगों का भारी समर्थन मिला है।

 

जिन्सी वर्गीज़

 

याचिका: नवजात शिशु फार्मूला दूध का सेवन कराने से पहले अस्पतालों को माता-पिता से सहमति लेनी आवश्यक है।

जिंसी वर्गीज को तब यह नाग़वार गुज़रा था जब उनके नवजात शिशु को उनकी मर्जी को बिना फार्मूला दूध पिलाया गया था। जब उनका बच्चा मात्र एक दिन का ही था और उस समय वह एनआईसीयू में भर्ती था। स्तनपान कराना मातृत्व का महत्वपूर्ण अंग है। स्तनपान कराना मातृत्व का महत्वपूर्ण अंग है। प्रसव के बाद पहले 2 दिन मां के स्तनों से जो गाढ़ा पीला दूध (कोलस्ट्रम) आता है वह अमृत तुल्य है, उसे नवजात शिशु को पिलाना ही चाहिए। हर मां की प्राथमिकता है कि पोषण से भरपूर यह दूध बच्चे को पिलाया जाए जो उसके दीर्घकालिक स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है। जब डॉक्टर स्तनपान की सिफारिश करते हैं तो अस्पताल सहमति के बिना नवजात शिशुओं को फार्मूला दूध की खुराक देने की आज़ादी ले रहे हैं। इस तरह अस्पताल अपने बच्चे के लिए निर्णय लेने के लिए एक मां का अधिकार छीन लेते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि जिन्सी वर्गीज़ ने एक नई मां के रूप में अनुभव किया और हर नई मां के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए change.org पर एक याचिका दायर करने का फैसला किया। वह चाहती हैं कि वकील यह सुनिश्चित करें कि जब तक कोई वैध चिकित्सा कारण न हो, अस्पतालों को माताओं से उनकी सहमति के बिना नवजात शिशुओं को फार्मूला दूध नहीं खिलाना चाहिए।

 

2. सुबर्ना

 

याचिका: अस्पतालों के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे सी-सेक्शन से जन्मों की संख्या घोषित करें

जिन माताओं का सी-सेक्शन होता है उन्हें ठीक होने में अधिक समय लगता है और उन्हें डिलीवरी के बाद का खतरा रहता है। यह डिप्रेशन किसी औरत के अपने बच्चे को स्तनपान कराने और एक मां के रूप में अपनी नई भूमिका की क्षमता को स्वीकार करने में बाधा बन सकता है, जो मां और बच्चे के संबंध को प्रभावित करता है। अपनी खुद के अनुभव के कारण, सुबरना ने सी-सेक्शन डिलीवरी की बढ़ती गिनती के बारे में एक चिंता जताई है और एक याचिका दायर करके अस्पतालों के लिए सांसदों से कार्रवाई की मांग की है ताकि सी-सेक्शन से जन्मे बच्चों की संख्या को घोषित किया जा सके। शोध में कहा गया है कि केवल 10-15% जन्म सी-सेक्शन के ही होते हैं। हमारे देश में सिर्फ एक राज्य में 30% सी-सेक्शन के जन्म की खतरनाक दर है। समय की जरूरत है कि उन अस्पतालों के साथ पूछताछ की जाए है जो इस प्रतिशत का दावा करते हैं और सी-सेक्शन से जन्मे बच्चों की संख्या के बारे में अस्पतालों के लिए प्रासंगिक दिशानिर्देशों को फ्रेम करते हैं।

 

3. दर्शना

 

याचिका: पोस्टपार्टम डिप्रेशन को मान्यता दी जानी चाहिए

 

हमारे देश में नई माताओं के लिए एक संरचित सहायता प्रणाली का अभाव है, विशेष रूप से स्वास्थ्य की दृष्टि से। हालांकि बेबीचक्रा और कई अन्य प्लेटफ़ॉर्म जैसे डिजिटल ऐप अपने लेखों और समुदाय के जरिए नई मांओं को अपना छोटा-सा समर्थन दे रहे हैं, लेकिन समाज के कानून निर्माताओं को विशेष रूप से डिलीवरी के बाद होने वाले डिप्रेशन के बारे में नई मांओं के लिए एक संरचित हेल्थलाइन सहायता उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। दर्शना को डिलीवरी के बाद के डिप्रेशन को पहचानने की जरूरत महसूस हुई जब उसे अपना बच्चा हुआ और इन सबके साथ कठिन पलों से गुजरना पड़ा। उसने change.org के माध्यम से सभी नई माताओं की ओर से आवाज उठाई है और सांसदों से कहा है कि वे एक हेल्पलाइन बनाएं जो पोस्ट पार्टम डिप्रेशन का समर्थन करती है और जो माताओं को उनकी भूमिका को खुशी से निभाने में मदद करेगी।

 

4. ऋचा

 

याचिका: अदालतों में शिशु अनुकूल कमरे

हाल ही में तलाक और बाल संरक्षण की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। कानूनी विवादों के चलते अदालतों के अनेकों चक्कर काटने पड़ते हैं जिनमें जिनमें बच्चे भी शामिल होते हैं। ये सारी बातों से बच्चे के दिमाग पर भावनात्मक और शारीरिक रूप से काफी असर डालते हैं। ऋचा और उनका बच्चा भी इस तकलीफ से गुजर रहे हैं। अदालतों में जिस तरह से बच्चों के जटिल कमरे सेटअप किए गए हैं ऋचा उससे खुश नहीं हैं। यह वह जगह है जहां एक बच्चे को अपने संरक्षक माता-पिता के साथ समय बिताने के लिए मिलता है और सही मायनों में, मानसिक अपरिपक्वता वाले बच्चों को विशेष सुरक्षा उपायों और कानूनी साधनों द्वारा संरक्षण प्राप्त होने की उम्मीद है जो इन जटिल कमरों में बिल्कुल गायब है। ऋचा की याचिका ने कानूनी लड़ाई में एक बच्चे के अधिकार के बारे में जागरूकता पैदा की है और उसे अपार समर्थन मिला है।

 

5. दीपिका आहूजा

 

 

याचिका: दत्तक लेने के लिए पितृत्व अवकाश

माता-पिता की भूमिका या अधिकार को उनके बच्चे के तरीके से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। गोद लेने के लिए जा रहे जोड़ों की बढ़ती संख्या के साथ, कंपनियों और संगठनों को उन नीतियों पर काम करने की आवश्यकता है जहां पुरुष कर्मचारियों को बच्चे को दत्तक लेने पर पितृत्व अवकाश का लाभ मिले। अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर दीपिका आहूजा ने महसूस किया कि दत्तक माता-पिता का समर्थन करने वाला इस तरह का एक नैतिक कानून हमारी कंपनियों और संगठनों से गायब है और इसे हमारे समाज निर्माताओं द्वारा एक जनादेश के रूप में करने की आवश्यकता है। उनकी याचिका ने कई दत्तक माता-पिता को आशा दी है, जो मानते हैं कि एक पुरुष भी बच्चे पिता के रूप में गले लगाने में समान भूमिका निभाता है चाहे बच्चा जैविक हो या गोद लिया गया हो।

 

6. आरती श्यामसुंदर

 

 

याचिका: कार्यस्थल पर लैंगिक समानता में सुधार के लिए पितृत्व अवकाश को अनिवार्य किया जाना चाहिए

आरती जब वह कार्यस्थल में लैंगिक असमानता को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न संगठनों में काम कर रही थी तब उसने महसूस किया कि महिला कर्मचारियों की गिनती कभी स्थिर नहीं थी। काम पर लैंगिक असमानता केवल तभी संतुलित हो सकती है जब ऐसी नीतियां हों जो महिला कर्मचारियों को काम के दौरान उनके संपूर्ण प्रयासों में मदद देती हैं। इसका मतलब यह है कि एक कानून या नीति होनी चाहिए जो पुरुष कर्मचारियों को घर वापस माता-पिता के रूप में समान जिम्मेदारी साझा करने की अनुमति देती है। ऐसी ही एक नीति है पितृत्व अवकाशों को अनिवार्य बनाना। आरती ने यह याचिका उन लाखों कामकाजी माताओं की ओर से उठाई है, जो बच्चों की देखभाल करते हुए काम और घर में संतुलन बनाने के लिए संघर्ष करती हैं।
एक मां होने की अपनी यात्रा में विभिन्न अनुभवों के माध्यम से इन माताओं ने आगे आकर अपने अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ उठाई है। उनकी याचिकाएं हमारे देश भर में लाखों माताओं के लिए आवाज़ उठाती हैं। ये अपेक्षित अधिकार जागरूकता की भावना लाते हैं क्योंकि यह समाज अपनी मातृत्व की यात्रा में एक मां को सहायता प्रदान करने के मामले में पीछे है।

 

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