5 Aug 2019 | 1 min Read
सुमन सारस्वत
Author | 60 Articles
लंबे-लंबे डग भरती हुई मैं चर्चगेट स्टेशन में दाखिल हुई। चारों प्लेटफार्म पर ट्रेनें लगी थीं।
बोरिवली के लिए फास्ट ट्रेन मिल जाए तो 15-20 मिनट जल्दी घर पहुंच जाऊंगी। रात के 10 बज चुके थे।
मेरी दो साल की बेटी ‘बेबी सिटिंग’ में अपनी मां को ‘मिस’ करने लगी होगी। मैंने मन-ही-मन हिसाब लगाया। नजर दौड़ाई तो देखा- चारों स्लो ट्रेन थी। घर पहुंचने की जल्दी धरी की धरी रह गई। एक जगह अगर देर हो जाए तो हर जगह देर होती रहती है। मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है। मैं खुद पे झल्लाई।
आज मिस इंडिया कांटेस्ट की प्रेस कांफ्रेंस थी। कांटेस्ट के आयोजकों ने एक प्रेस मीट रखी थी जिसमें टॉप टेन फाइनलिस्ट से मीडिया को रूबरू करवाना था।
सारी सुंदरियों से परिचय के बाद मीडिया अपने काम में लग गई। इन सुंदरियों के इंटरव्यू में सभी जर्नलिस्ट बिजी हो गए। प्रेस नोट मेरे हाथ में था ही। मैं एक सांध्य दैनिक में रिपोर्टर हूं। मैंने समय न गंवाते हुए दूसरे पत्रकारों द्वारा पूछे सवालों के जवाब भी नोट कर लिए थे।
डिनर के साथ-साथ मैं एक-एक सुंदरी से खुद जाकर मिली थी। फीचर के लिए भरपूर सामग्री मुझे मिल गई। अगले दिन के इश्यू के लिए पूरे पेज का मैटर मेरे हाथ आ गया था। बस आधा घंटा पहले जाकर आर्टिकल लिख मारना था। आर्टिकल का हेडिंग, इंट्रो सोचते-सोचते मैं चर्चगेट स्टेशन तक आ पहुंची थी।
प्लेटफार्म नं.एक पर लगी बोरीवली की ट्रेन में चढ़ गई। विंडो सीट खाली थी। विंडो सीट क्या पूरा डिब्बा ही खाली था। गेट के पास वाली सीट पर मैंने कब्जा जमा लिया। अभी दो मिनट बाकी थे ट्रेन चलने में। मैंने आंखें बंद कर लीं। आंखें बंद होते ही आधे घंटे पहले के दृश्य दिमाग में मोंटाज़ की तरह आने लगे। हर इमेज में ब्यूटी कंटेंस्टेंट दिखाई पड़ रही थीं। एक से बढ़ कर एक। नपी-तुली देह, उठने-बैठने की सलीका, बोलने का तरीका, दमकता यौवन, जगमगाता सौंदर्य ऊपर से मुंबई का यह भव्य फाईव स्टार होटल जहां यह प्रेस कांफ्रेस थी। मैं अभिभूत थी सारा वातावरण एक स्वप्नलोक की रचना कर रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं भी कल्पना करूं उन ब्यूटी क्वीन की पंक्ति में मैं खुद को भी खड़ा कर दूं…. हर औरत खुद को किसी हीरोइन से कम नहीं समझती। मेरी तरह खुलेआम किसी के सामने इस बात को भले न स्वीकार करती हो! मैं ब्यूटी क्वीन की लाईन में खड़ी ही होने वाली थी कि एक धक्का लगा मेरे सपनों को। कोई दूसरी तो नहीं आ गई… मेरे सपने को भंग करने के लिए….
यह ट्रेन खुलने का धचका लगा था। मेरी आंख हठात् खुल गई। मैं अपनी खुरदुरी रंगहीन दुनिया में आ गई. …’पर वो भी एक दुनिया है, आम लोगों की दुनिया से अलग ही सही…’ मेरे पत्रकार दिमाग ने मुझे समझाया. ‘…वो तो है….’ सोचते हुए मेरी नजर गेट के पास बैठी भिखारन पर पड़ी। उसे देखकर ऐसा लगा जैसे मेरे मुंह का जायका बिगड़ गया हो… रसमलाई खाते-खाते उसमें मक्खी गिर गई हो। सचमुच, कहना तो नहीं चाहिए मगर ऐसी बदसूरत कि पूछो मत! पक्का काला रंग, जिन्हें पानी-साबुन मिले अरसा बीत जाता होगा। झांऊ की तरह बिखरे बाल…और उसकी बदसूरती को बढ़़ाते उसके होंठ और दांत..ऊपरवाला होंठ जिसे एक दांत चीरता हुआ बाहर झांक रहा था। जिसकी वजह से ऊपरी होंठ फट गया था और काले मसूढ़े बाहर आने को सिरे उठा रहे थे। मैले-कुचैली नववारी साड़ी में अपनी जवानी को समेटे हुए वह अक्सर दिख ही जाती थी। कांख में अपने दुधमुंहे बच्चे को थामे जब वह करीब आकर हाथ बढ़ाती तो बदबू का भभका छूट जाता। उस बदबू को अधिक देर सहन न कर पाने की वजह से महिलाएं फटाक से सिक्के देकर जान छुड़ाती थीं।
‘वाह क्या सीन है! अगर बदसूरती का कोई कांटेस्ट हो तो ये महारानी प्रथम आएंगी…’ मैंने मन-ही-मन व्यंग्य किया। ‘…हूं…ये क्या बोल रही है? तू तो ऐसी नहीं है!’ मेरे मन ने मुझे डपटा। डांट खाकर मैं बगलें झांकने लगी कि कहीं किसी ने मेरे विचार सुन तो नहीं लिए। पर डिब्बे में मेरे करीब कोई नहीं था। अपनी झेंप निकालने के लिए मैंने पर्स में से एक सिक्का टटोल कर बाहर निकाल लिया। जब वो मेरे पास आएगी तो मैं उसे आज जरूर एक सिक्का दूंगी।
वैसे मैं पेशेवर भिखारियों को भीख देने में यकीन नहीं रखती। मैंने इसे आजतक एक भी सिक्का नहीं दिया था। हाथ में सिक्का लिए मैं उसके करीब आने की राह देखने लगी। मगर महारानी जी इस समय कमाई के मूड में नहीं थी। गेट के पास बैठी वह इत्मीनान से बच्चे को स्तनपान करा रही थी। मेरे मन के भाव गिरगिट की तरह बदले। मां-बेटे को देखकर मेरी ममता जाग गई। मुझे अपनी बेटी का चेहरा दिखने लगा। जी चाहा इसी पल उसे अपने सीने में भींच लूं। मेरी आंखें भर आईं। बेबस मैं, अपनी ममता को उस भिखारन में आरोपित कर मैं उन्हें निहारने लगी। पेट भर जाने के बाद बच्चा किलकारियां मारकर खेलने लगा। भिखारन भी बच्चे के साथ खेलने लगी। उसे दुलराने लगी…. किलकारियां मारकर चहकने लगी। कैसी निश्छल हंसी उसके चेहरे पर दमक रही थी! उसके बेढंगे कटे होंठ मातृत्व के स्वर्ण-रस से भीग चुके थे। दांत चांदी हो गए थे। ….अब तो वही कितनी खूबसूरत दिखने लगी…एक अप्सरा भी इस मां के सामने फीकी पड़ जाए। मातृत्व के भाव ने उसे सुंदरता के शिखर पर ला बिठा दिया था। मैं फिर अभिभूत हुई जा रही थी…
इतनी खूबसूरत औरत मैंने आज तक नहीं देखी थी।
मुट्ठी में सिक्का दबाए मैं बैठी रही….
…एक सिक्का देकर दुनिया के इतने खूबसूरत लम्हे की तौहीन मैं नहीं कर सकती थी!
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